कानपुर की गलियां

"कानपुर की गलियां"
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कानपुर की गलियों के बारे में लिखने का मूड बना तो खुद को रावतपुर की क्रासिंग के जाम में फंसा पाया ।
कहाँ से शुरू करूँ ?
जिधर जाऊ उधर गली आगे से मुड़ती है । कहीं कहीं तो बंद गली भी मिलती है ।
पलटी मारो तो लौट के बुद्धू हुवै पहुंचे जहां से शुरू करीन रहे ।
"गणेश शंकर विद्यार्थी' इन्ही गलियों में रहा करते थे, और उनका "प्रताप" भी इन्ही क्रांतिकारी गलियों की देंन था ।
और उन दोनों का अंत भी इन्ही गलियों में हुआ ।
किधर से शुरू करूँ ?
सेंट्रल से निकल कर सीधा भूसा टोली की गली में घुस जाऊं या नइ सड़क होते हुए रोटी वाली गली में । बड़े चौराहे पे राजू की "अधपइ" कड़क कुल्हड़ वाली चाय पीते हुए बनारसी का पान मुह में ठूंसकर कचहरी वाली गली होते हुए गोरा कब्रिस्तान पहुँच जाऊं ।
गोला घाट में डुबकी लगाकर बाबा "आनंदेश्वर" के दर्शन करूँ, बंद पड़ी "लाल इमली" को आशा भरी नजरों से देखूं और प्रसासन को कोसते हुए लकडमंडी घुस जाऊं ।
चुन्नीगंज "शनि मंदिर" में मत्था टेकते हुए ग्वालटोली की तरफ चल दूँ ।
सबको मोक्ष देने वाले भैरो बाबा के दर्शन करके कुछ देर जलते - सुलगते मुर्दों को निहार लू और फिर खलासी लाइन वाली गली में अलबेला की चाट चख लूँ ।
किधर से शुरू करूँ ?
कहाँ जाऊं ?
क्या लिखू ?
पनकी दरबार में मन्नत मांग कर मसवान पुर की गलियों में घूम लूँ या फिर कंपनी बाघ की आंबेडकर मूर्ति देखते हुए नवाबगंज की गलियों से होते हुए "गंगा बैराज" में जा पहुँचूँ।
तिलक नगर की रहिसियत भरी गलियों में टाहिलते भये आर्य नगर के बंगलो को निहारते निहारते "मोतीझील" पहुँच जाऊं ।
या फिर नई सड़क की तंग गलियों में खो कर खुदको भूल जाऊं ।
जितनी उलझी हुई हैं कानपूर की गलियां, उससे कम कठिन नही है उनके बारे में लिखना ।
बहुत जादा सफेदी पहिन के भी इन गलियों में नहीं घूमा जा सकता । न जाने किस गली में "मेन होल" का ढक्कन खुला हो !
न जाने किसकी सीवर की पाइप फुहारे मार रही हो!
अब तो बहुत सुधर गया है वर्ना भले ही इन गलियों में धुप नहीं जाती, भले ही जाड़े का मौसम हो, सज-धज के निकल रहे पक्के कनपुरिया जब भी घर से निकलते, मुंडी ऊपर कर के ही निकलते थे ।
न जाने कब तिमंजिले मकान की खिड़की से गली में फेंका हुआ कूड़ा सीधा सर पे आगिरे ।
न जाने कहाँ से "मसाले" का लबाब आपके सफ़ेद कुर्ते को लालम-लाल कर दे ।
इन गलियों में घूमने के लिए एक ठो लाल गमछा कमर में और एक ठो कंधे पर मफलर की तरह लपेटा हुआ हो तब ही ठीक है ।
कुछ लोफड़ लड़के तो गली में जा रहे आदमी पर जान बूझ के पिचकारी मारते हैं, और जब वह खड़ा होकर मुह उठाकर माँ-बहिन सकता तो उसकी मौज लेते । लेकिन अगर आदमी शरीफ हुआ और चुपचाप निकल गया तो लड़कों का सारा मजा झंड हो जाता और वो फिर ऊपर से ही चिल्लाते.......
अबे गुरु फट गई क्या ?!!
लड़के तो लड़के मौज लेने में पुराने कनपुरिया मठाधीश भी कम नहीं थे । कंधे पे गमछा, पचहत्तर छेद वाली बनियान और मुह में मसाला दबाये चबूतरे पे दरीदर की तरह बैठे पुराने जमाने के ज्ञाता मठाधीश अचानक से साफ़ सुथरे श्रीमान जी के पैर के पास पिच पिच पिचकारी मार के ऐसे मुह घुमा लेते की जैसे कुछ पता ही न हो ।
और जब वो आदमी झेर होक आसपास बैठे मठाधीशो के चेलों से उलझता तो उसकी मौज लेते हुए अपना ज्ञान बघारना चालू कर देते । और जब आदमी गरियाने के मूड में आता तो धीरे से खिसक लेते ।
आप बहुत आराम से कानपूर की गलियों में गायों, भगवान् शंकर के सुस्त वाहन नंदी महाराज से बचते बचाते चले जारहे है, तभी एक जोर की आवाज आपके कानों में पड़ती है........
बचा बे !!!!
पता चला की नंदी महाराज रौद्र रूप में है और संकरी गली में गाय को दौड़ा रहे हैं । गाली में चलने वाले तितर-बितर इधर-उधर, अबुतरों-चबूतरों पर चढ़ के जान बचा रहे हैं । आपके पास एक पल का समय है । एक पल में आप भी सबकी देखा देखी किसी चबूतरे पे चढ़ जाते हैं, या किसी घर के खुले दरवाजे में घुस के जैसे तैसे जान बचा पाते हैं ये आपकी किस्मत । जान बची तो लाखों पाये का राग अलापते हुए आगे चलते हैं ।
गली में बिखरी गन्दगी से भी मोहल्लों को पहचान जा सकता है ।
जिस गली में इमली के बीज बिखरें हो, समझ लो की ये मद्रसियों का मोहल्ला है, जिस गली में मछली की गंध आरही हो समझ जाओ ये बंगालियों का मोहल्ला है । और जिस गली में हड्डी लुढ़की पड़ी हो वो हमारे मुस्लिम भाइयों का मोहल्ला ।
ऐसे ही संकेतों से आप नेपालियों, या दक्षिण भारतियों के मोहल्ले पहचान सकते हैं ।
कानपूर की गलियों में रहना आपको भले ही भयवाह लग रहा हो लेकिन यहाँ के लोगों के लिए ये गलियां ही स्वर्ग हैं । आप कहते रहो कश्मीर को स्वर्ग, ।
जाड़े में दिनभर छतों पे जो रौनक होती है वो मनाली के माल रोड पर क्या होगी ।
गर्मी में जब दूसरे शहर के लोग कश्मीर या हिमचल का रुख करते हैं तो कनपुरिया घर के तैखाने में दरी और पंखा चलाकर मस्त खर्राटे भरते हैं । जाड़े के मौसम में जब ठेलिया पे वो गुड़ की चाय बेचने वाला आता है तो मनो जमघट लग जाता हो उसके आसपास ।
और शाम होते ही बड़े से तवे पर कलछुल की टक-टक टक-टक की वो टिकिया वाले की आवाज न चाहते हुए भी घर की महिलाओं को अपनों और खींच लेती हैं ।
गर्मी के मौसम में जब बहार लू चल रही होती है तो एक आवाज सुनकर ही मन को ठंडक पहुँच जाती है ।
आइसक्रीम.......!!
डब्बे वाला इतने ठहराओ के साथ बोलता है की मानो पिघली हुई आइसक्रीम गले से उतारकर सीधा दिल में पहुच गई हो ।
बचपन से अब जवानी आगयी कानपूर में रहते रहते मगर अभी भी कानपूर सारी गलियां घूम ली हों ऐसा नहीं है । अभी भी सड़क पे जाम से बचने के लिए बाइक अगर किसी गली में घुसेड़ ली तो आगे चलकर पूछना पड़ता है.....
"भाई पटका पुर जाना है, किधर से जाएँ ?"
छोड़ो यार नहीं लिखता कानपूर की गलियों के बारे में । बहुत टेढ़ी खीर है ।
उसके बारे में तो कोई कनपुरिया मठाधीश ही बता सकता है।

 © बकलोल विपिन

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