कानपुर का इतिहास

इतिहास में गुम हो चुका "कानपुर काप्रताप"
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दुश्मन की गोलियों को सामना हम करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे कानपुर के फीलखाना स्थित प्रताप प्रेस की लगभग खंडहर में तब्दील हो चुकी इमारत में जोश भरे देने वाले ये शब्द मानो आज भी कानों में गूंज रहे हों। क्रांतिकारियों की आजादी को लेकर तैयार की गई एक- एक रणनीति और गतिविधि का गवाह बना ऐतिहासिक प्रताप प्रेस भवन अपने कठिन दौर से गुजर रहा है। सुनहरे इतिहास के नाम पर अब यहां पर सिर्फ प्रेस का बंद पड़ा जर्जर दरवाजा ही है। इसके अलावा भवन के आसपास रहने वाले कुछ बुजुर्ग हैं जो भवन और यहां पर इकट्ठा होने वाले क्रांतिकारियों के कुछ किस्सों के बारे में जानकारी रखते हैं.
इतिहास के पन्नों में अहम भूमिका
प्रताप प्रेस की भारत की आजादी के लिए हुए आंदोलनों में अहम भूमिका रही है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप प्रेस की नींव रखी थी। जानकारों के मुताबिक जिस भवन में प्रताप प्रेस चलती थी, उसके मालिक वैद्य शिव नारायण मिश्रा थे। क्रांतिकारी विषयों पर पुस्तकें लिखने के शौकीन शिव नारायण ने प्रेस चलाने के लिए पूरा भवन विद्यार्थी जी को दे दिया था। विद्यार्थी जी के नेतृत्व में यहां से दैनिक प्रताप नाम से अखबार निकलता था। जो अपनी लेखनी का लोहा लगातार मनवा रहा था। इस भवन की महत्ता इस बात से भी बढ़ रही थी, क्योंकि यहां पर क्रांतिकारियों के साथ ही सक्रिय राजनीति से जुड़े राजनेताओं का आना जाना भी लगा रहता था.
क्रांतिकारियों की होती थी मीटिंग
प्रताप प्रेस भारत की आजादी के लिए तत्पर चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाक उल्लाह खां समेत सभी क्रांतिकारियों की कर्मस्थली भी रहा है। चंद्रशेखर आजाद अपने हाथों से यहां पर प्रिंटिंग करते थे। आजादी की जंग लड़ने की सभी रणनीति प्रताप प्रेस के भवन में ही तैयार की जाती थी। इसके लिए समय- समय पर क्रांतिकारियों की मीटिंग आयोजित की जाती थी, जिसमें देश के अलग- अलग हिस्सों में सक्रिय क्रांतिकारी कानपुर स्थित प्रताप प्रेस में एकत्र होते थे.
ऐसे खोता गया अपनी चमक
इतिहास के पन्नों में अहम होने के बाद भी प्रताप प्रेस की आज कोई सुध लेने वाला नहीं है। दरअसल प्रताप प्रेस की चमक खोने का सिलसिला सन् 1931 से ही शुरू हो गया था। प्रताप प्रेस से परोक्ष रूप से जुड़े अम्बिका प्रसाद बाजपेई बताते हैं कि गणेश शंकर विद्यार्थी जी की मौत के बाद बालकृष्ण शर्मा नवीन प्रताप प्रेस के संपादक बने। इस दौरान सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन बालकृष्ण जी के दिल्ली जाने के बाद बिहारी लाल ओमर को संपादक बना दिया गया। ये ऐसा वक्त था, जब दैनिक प्रताप का सर्कुलेशन और ख्याति में लगातार गिरावट आ रही थी। ऐसे में बिहारी लाल ओमर ने प्रेस को घाटे में दिखाते हुए यहां काम कर रहे सभी इम्प्लाइज की सैलरी रोक दी। जिसके चलते कुछ ही दिनों बाद प्रताप प्रेस में ताला पड़ गया। मजबूत विचारधाराओं की गवाह रह चुकी प्रताप प्रेस अंदर से खोखली हो गई। जब यहां से प्रिंटिंग बंद हो गई तो भवन के असली मालिक रहे शिव नारायण मिश्रा के बेटे ने भवन को अपने कब्जे में ले लिया। जहां पर छपाई होती थी, उस कमरे का दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया गया। कुछ समय बाद भवन के अलग- अलग हिस्सों को अलग- अलग लोगों को बेच दिया।






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