मिलो कभी

"मिलो कभी"
--------------------------------------
मिलो कभी,
फिर उसी शहर की संकरी गलियों में, वहीँ जहाँ से रास्ता जाता है चूड़ियों के उस तंग बाजार को,
चेहरे पर वही मुस्कराहट लेकर मिलो कभी।
वही मुस्कराहट जिसे देखकर खुशियो की आँखें भी चमक जाये,
वही मुस्कराहट जिसे देखकर जीने की ख्वाहिश बढ़ जाये,
हाँ वही टूटते तारो सी खूबसूरत बातें लेकर,
मिलो कभी,
बातें जो सुकून देती हैं मेरे कानो को,
वही बातें जिनका न मतलब हो, न निकालने को जी करे,
मिलो कभी,
उन समंदर सी गहरी नीली आँखों में चमक लिए,
जिनमे मेरा, सिर्फ मेरा अश्क नज़र आता हो,
जिनके उठते ही जीवन रोशन सा हो जाता है,
वो कानों के पास अठखेलियां करती तुम्हारी रेशमी सी जुल्फें, जैसे दो बच्चे आपस में ठिठोली कर रहे हों,
अपनी उँगलियों से उन जुल्फों को कानो के पीछे फसाते हुए,
मिलो कभी,
तुम्हारा दुपट्टा जो किसी बादल सा लहराता है, समंदर की लहरों सा जो कभी सरक सा जाता है,
बेपरवाही से संभालते हुए उस उड़ते दुपट्टे को,
मिलो कभी,
छन-छन-छन सी छनकती पाज़ेबों को चुप कराते हुए,
मिलो कभी...............

--- विपिन श्रीवास्तव

Comments

Popular posts from this blog

कानपुर की गलियां

कानपुर की घातक कथाये - भाग 1: “मामा समोसे वाले"

राग दरबारी